भगवान शंकर जी के अनुसार चंचल मन जीवन-मुक्ति के लिए किस प्रकार बाधक है?
प्रस्तावना
भारतीय दर्शन में भगवान शंकर (महादेव) को आदियोगी और योगेश्वर कहा गया है। वे केवल संहार के देव ही नहीं, बल्कि गहन योग, ध्यान और आत्मज्ञान के प्रतीक हैं। शिवजी का उपदेश है कि आत्मा सदा मुक्त और शुद्ध है, किंतु मन की चंचलता ही उसे बंधन में जकड़ देती है। यदि कोई साधक जीवन-मुक्ति यानी जीते-जी मोक्ष की अवस्था प्राप्त करना चाहता है, तो उसे सर्वप्रथम अपने मन पर विजय पानी होगी।
इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि भगवान शंकर जी के अनुसार चंचल मन जीवन-मुक्ति के मार्ग में क्यों और कैसे बाधक है।
चंचल मन क्या है?
चंचल मन का अर्थ है –
अस्थिर और अशांत मन
विषयों और इच्छाओं की ओर भागने वाला मन
कभी प्रसन्न, कभी दुःखी; कभी लालायित, कभी विरक्त होने वाला मन
शिवपुराण, उपनिषद और गीता सभी इस तथ्य को मानते हैं कि मन ही साधक की उन्नति या पतन का मुख्य कारण है।
भगवान शंकर जी का दृष्टिकोण: मन ही बंधन और मोक्ष का कारण
उपनिषद में कहा गया है:
“मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।”
अर्थात मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है।
जब मन इच्छाओं, क्रोध, लोभ और मोह से ग्रस्त होता है, तो यह जीव को संसार के बंधन में डाल देता है।
जब मन स्थिर और निर्विकार हो जाता है, तब आत्मा का साक्षात्कार होता है और साधक मुक्त हो जाता है।
शंकर जी के अनुसार साधना का सबसे बड़ा शत्रु मन की चंचलता है।
चंचल मन कैसे ढक देता है आत्मानुभूति?
आत्मा तो स्वभाव से ही शुद्ध, मुक्त और शांत है। किंतु चंचल मन उसकी रोशनी को ढक देता है।
जैसे झील का जल तरंगों से भर जाए तो उसमें आकाश का स्पष्ट प्रतिबिंब नहीं दिखता।
उसी तरह जब मन में कामना, क्रोध, ईर्ष्या और चिंता की तरंगें उठती हैं, तो साधक आत्मा का प्रकाश नहीं देख पाता।
महादेव सिखाते हैं कि साधना का सार यही है कि मन को शांत कर आत्मा के सत्य स्वरूप का अनुभव किया जाए।
साधना और चंचल मन की बाधा
1. ध्यान में रुकावट
ध्यान की प्रक्रिया तभी सफल होती है, जब मन एकाग्र हो। चंचल मन बार-बार बाहर की ओर भागता है, जिससे साधक भीतर की गहराई में नहीं उतर पाता।
2. भक्ति में बाधा
भक्ति में पूर्ण समर्पण आवश्यक है। यदि मन स्थिर न हो, तो ईश्वर-चिंतन भी बाधित होता है।
3. कर्मयोग में रुकावट
कर्म करते समय यदि मन चंचल हो, तो व्यक्ति परिणामों से जुड़ जाता है। परिणाम से आसक्ति ही बंधन का कारण है।
जीवन-मुक्ति क्या है?
जीवन-मुक्ति का अर्थ है – शरीर रहते हुए भी आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता और शांति का अनुभव करना।
ऐसा साधक न दुःख से विचलित होता है, न सुख में मग्न होता है।
वह संसार में रहते हुए भी आसक्त नहीं रहता।
जीवन-मुक्ति वही है जिसे शंकर जी “परम शिवभाव” कहते हैं।
चंचल मन जीवन-मुक्ति के लिए बाधक है, क्योंकि –
यह व्यक्ति को मोह और आसक्ति में बांधता है।
यह सुख-दुःख की लहरों में डुबो देता है।
यह साधक को आत्मज्ञान की स्थिरता से दूर कर देता है।
शिवजी का समाधान: मन की चंचलता कैसे दूर करें?
1. ध्यान और समाधि
शंकर जी स्वयं महायोगी हैं। वे सिखाते हैं कि ध्यान और समाधि से मन को नियंत्रित किया जा सकता है।
नियमित ध्यान साधना से मन की गति मंद होती है।
धीरे-धीरे मन स्थिर होकर आत्मा की ओर मुड़ता है।
2. वैराग्य और संयम
इच्छाओं का संयम करने से मन शांत होता है।
वैराग्य का अर्थ है – विषयों में डूबे बिना संतुलित रहना।
3. शिवतत्व का स्मरण
महादेव का स्मरण, मंत्र-जप और भक्ति मन को एकाग्र बनाते हैं।
“ॐ नमः शिवाय” का जाप मन की चंचलता को शांत कर स्थिरता देता है।
4. संतोष और समत्व
जो कुछ उपलब्ध है, उसमें संतोष रखना।
हर परिस्थिति में समभाव बनाए रखना।
प्राचीन ग्रंथों से प्रमाण
उपनिषद
“यदा मनः प्रशान्तमभयं स्वप्नानामतिक्रान्तमेकात्मना, तदा ब्रह्मसम्पत्तिः।”
अर्थात जब मन शांत हो जाता है और एकात्म भाव में स्थित होता है, तभी ब्रह्म का साक्षात्कार संभव है।
शिवपुराण
शिवपुराण में कहा गया है कि जो साधक ध्यान के द्वारा मन को स्थिर कर लेता है, वही शिवभाव को प्राप्त होता है।
भगवद्गीता
अध्याय 6, श्लोक 6:
“बंधुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।”
अर्थात जिसने अपने मन को जीत लिया, वही स्वयं का मित्र है और जिसने हार गया, वह शत्रु है।
आधुनिक जीवन में शंकर जी की शिक्षा -
आज की भागदौड़ और तनावपूर्ण जिंदगी में मन का चंचल होना स्वाभाविक है।
काम का दबाव, इच्छाएँ और प्रतिस्पर्धा मन को भटकाते हैं।
यदि हम शिवजी की शिक्षा को अपनाएँ और मन को स्थिर करें, तो जीवन में शांति और संतुलन प्राप्त कर सकते हैं।
यह स्थिर मन ही हमें धीरे-धीरे जीवन-मुक्ति की ओर ले जाता है।
भगवान शंकर जी के अनुसार “चंचल मन” (अस्थिर, इधर-उधर भटकने वाला मन) जीवन-मुक्ति (जीते-जी मोक्ष की अवस्था) के मार्ग में बड़ी बाधा है। इसका कारण कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है—
1. मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है
उपनिषद और शिवग्रह्य ग्रंथों में कहा गया है कि मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः – मन ही बंधन और मुक्ति का कारण है।
जब मन चंचल होता है तो वह विषयों, इच्छाओं और विकारों की ओर भागता है। यही बंधन है।
जब मन स्थिर और निर्विकल्प हो जाता है तो आत्मा की पहचान होती है, यही मोक्ष है।
2. चंचल मन आत्मानुभूति को ढक देता है
शंकर जी का मत है कि आत्मा तो सदा शुद्ध और मुक्त है। परंतु मन की चंचलता (कामना, क्रोध, लोभ, स्मृति-विक्षेप) आत्मा की उस प्रकाशमान अवस्था पर परदा डाल देती है।
जैसे झील का जल तरंगों से भरा हो तो उसमें आकाश का प्रतिबिंब स्पष्ट नहीं दिखता। उसी तरह चंचल मन आत्मा का साक्षात्कार नहीं होने देता।
3. साधना में रुकावट
योग, ध्यान और भक्ति में मन की एकाग्रता अत्यंत आवश्यक है।
चंचल मन साधक को बार-बार बाह्य विषयों की ओर खींच ले जाता है।
शिवपुराण और तंत्रों में स्पष्ट कहा गया है कि “मन को वश में किए बिना कोई साधना सिद्ध नहीं हो सकती।”
4. जीवन-मुक्ति के लिए शांति अनिवार्य
जीवन-मुक्ति का अर्थ है—शरीर रहते हुए भी आसक्ति और मोह से मुक्त हो जाना।
यदि मन चंचल है तो साधक हर परिस्थिति में दुःख-सुख से प्रभावित होगा, और मोह-बंधन में फंसा रहेगा।
शंकर जी सदा समाधि में स्थित होकर यही उपदेश देते हैं कि स्थिर मन ही अमृत अवस्था का द्वार है।
सरल निष्कर्ष
भगवान शंकर जी स्पष्ट कहते हैं कि चंचल मन ही जीवन-मुक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।
चंचल मन हमें मोह और बंधन में डालता है।
स्थिर मन आत्मज्ञान का द्वार खोलता है।
ध्यान, वैराग्य, संयम और शिवस्मरण से मन की चंचलता मिटती है।
अतः यदि कोई साधक सच्चे अर्थों में जीते-जी मोक्ष पाना चाहता है, तो उसे अपने मन को स्थिर करने का प्रयास करना ही होगा। यही भगवान शंकर जी की अमूल्य शिक्षा है।
चंचल मन = बंधन
स्थिर मन = मुक्ति
जीवन-मुक्ति पाने के लिए भगवान शंकर जी यही मार्ग बताते हैं—
ध्यान और समाधि से मन को स्थिर करना,
इच्छाओं को संयमित करना,
शिवभाव में लीन होकर आत्मस्वरूप का अनुभव करना।
👉 यही कारण है कि शिव को योगेश्वर और महायोगी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने स्वयं मन पर विजय पाई और जगत को यही शिक्षा दी।

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